संसदीय समितियां
संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की अन्य विशेषताओं की तरह ही संसदीय समिति की अवधारणा भी ब्रिटिश संसद से प्रेरित है।
संसदीय समिति से आशय संसद के सदस्यों की एक समिति से जिसे सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित अथवा अध्यक्ष द्वारा नामित किया जाता है और यह समिति अध्यक्ष के निर्देशन में काम करती है।
संसदीय समितियाँ सदन या अध्यक्ष के समक्ष अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती हैं।
पहली संसदीय समिति का गठन वर्ष 1571 में ब्रिटेन में किया गया था। देश में भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत वर्ष 1921 में पहली बार लोक लेखा समिति की स्थापना की गई थी, जिसे देश की स्वतंत्रता के बाद अप्रैल 1950 में पुनर्गठित किया गया।
संवैधानिक प्रावधान
संसदीय समितियों को संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 118 से अपने अधिकार प्राप्त होते हैं।
गौरतलब है कि अनुच्छेद 105 सांसदों के विशेषाधिकारों से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 118, संसद को अपनी प्रक्रिया एवं कार्य संचालन को विनियमित करने हेतु नियम बनाने का अधिकार देता है।
संसदीय समितियों के प्रकार
संसद में गठित समितियों को बड़े पैमाने पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
- स्थायी समितियाँ (Standing Committees)
- तदर्थ समितियाँ (Ad Hoc Committees)
स्थायी समितियाँ (Standing Committees)
स्थायी समितियाँ स्थायी प्रकृति की होती हैं, जो कि निरंतर रूप से कार्य करती रहती हैं और इनका गठन प्रत्येक वर्ष या एक नियमित अंतराल पर किया जाता है।
तदर्थ समितियाँ (Ad Hoc Committees)
तदर्थ समितियाँ अस्थायी प्रकृति की होती हैं जिनका गठन एक उद्देश्य विशेष के लिये किया जाता है। इन समितियों का उद्देश्य पूर्ण हो जाने के साथ ही इनका कार्यकाल भी समाप्त हो जाता है।
➱ वित्तीय समितियाँ, विभागीय स्थायी समितियाँ और कुछ अन्य समितियाँ स्थायी समितियों की श्रेणी में आती हैं। प्रमुख तदर्थ समितियाँ विधेयकों पर प्रवर और संयुक्त समितियाँ, रेलवे कन्वेंशन कमेटी, संसद भवन परिसर में खाद्य प्रबंधन पर संयुक्त समिति आदि भी तदर्थ समितियों की श्रेणी में आती हैं।
➱ वित्तीय समितियों में प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति और सार्वजनिक उपक्रम समिति शामिल हैं।
➱ बजटीय प्रस्तावों और महत्त्वपूर्ण सरकारी नीतियों की जाँच करने के लिये वर्ष 1993 में 17 विभागीय स्थायी समितियों का गठन किया गया। वर्ष 2004 में इन समितियों की संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से प्रत्येक समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा से व 10 राज्य सभा से) होते हैं।
➱ संसद किसी विषय या विधेयक की विस्तृत जाँच के लिये दोनों सदनों के सदस्यों की एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन भी कर सकती है। साथ ही, दोनों सदन अपने सदस्यों की एक प्रवर समिति का गठन कर सकता है। संयुक्त और प्रवर समितियों की अध्यक्षता आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के सांसद करते हैं और अपनी रिपोर्ट जमा करने के बाद उन्हें भंग कर दिया जाता है।
संसदीय समितियों का महत्त्व
➱ संसद सत्र के दौरान विधेयकों एवं सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण किसी विधेयक पर बोलने के लिये सदन में राजनीतिक दल के आकार के अनुसार ही उसे समय आवंटित किया जाता है, ऐसे में अधिकांशतः सांसदों को संसद में अपने विचार रखने के लिये पर्याप्त समय नहीं मिलता है, भले ही वे संबंधित विषय के विशेषज्ञ हों। इसके अतिरिक्त राजनीतिक ध्रुवीकरण और आपसी सामंजस्य की कमी के कारण संसद की अधिकांश चर्चा निर्णयविहीन ही रहती है।
➱ ऐसे में संसदीय समितियाँ विधेयकों पर व्यापक चर्चा हेतु एक महत्त्वपूर्ण मंच प्रदान करती हैं, गौरतलब है कि ये समितियाँ छोटे समूह की तरह होती हैं जिसके कारण इन बैठकों में प्रत्येक सांसद को चर्चा में योगदान देने का अवसर मिलता है।
➱ समय की बाध्यताः सामान्यतौर पर एक वर्ष में संसद की लगभग 100 बैठकें ही हो पाती हैं परंतु संसदीय समितियों की बैठकों का आयोजन संसद सत्र के बाद भी किया जा सकता है।
➱ निष्पक्षताः संसदीय समितियों की चर्चाएँ गोपनीय और ऑफ-कैमरा होती हैं ऐसे में सांसद बिना किसी दबाव के संबंधित मुद्दे पर निष्पक्षता से अपना पक्ष रखते हैं।
➱ बेहतर समन्वयः संसदीय समितियाँ कई मंत्रालयों के साथ मिलकर कार्य करती हैं और अंतर-मंत्रालयी समन्वय की सुविधा प्रदान करती हैं। इसके साथ ही इन समितियों को किसी विधेयक पर चर्चा के दौरान संबंधित क्षेत्र के विषय विशेषज्ञों को आमंत्रित करने का अधिकार है।
➱ समन करने का अधिकार: संसदीय समिति को अपने समक्ष किसी भी व्यक्ति को उपस्थित होने का आदेश देने का अधिकार न्यायालय के सम्मन के समान है, यदि कोई व्यक्ति ऐसे आदेश के बाद भी समिति के समक्ष प्रस्तुत होने में असमर्थ रहता तो उसे इसका कारण बताना होगा, जिसे पैनल स्वीकार या अस्वीकार भी सकता है।
➱ सहभागिताः कानूनों के निर्माण में सभी राजनीतिक दलों की सहभागिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विपक्षी दलों के सांसदों को कई महत्त्वपूर्ण संसदीय समितियों की अध्यक्षता दी जाती रही है, उदाहरण के लिये वर्ष 1967 के बाद से एक परंपरा विकसित हुई है जिसके तहत लोक लेखा समिति का अध्यक्ष विपक्ष से चुना जाता है।
हालाँकि संसदीय समिति की रिपोर्ट में शामिल सुझावों को मानना सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं होता है परंतु यह रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होती है जिससे सरकार पर आवश्यक सुधारों को लागू करने हेतु दबाव बनाने में सहायता प्राप्त होती है।
संसदीय समितियां का कार्य क्या है?
संसदीय समिति से तात्पर्य उस समिति से है, जो सभा द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाती है अथवा अध्यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित की जाती है और अध्यक्ष के निदेशानुसार कार्य करती है तथा अपना प्रतिवेदन सभा को या अध्यक्ष को प्रस्तुत करती है। समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय द्वारा उपलब्घ कराया जाता है।
चुनौतियाँ
➱ संसदीय समिति की अनदेखी: हाल के वर्षों में संसद में प्रस्तुत बहुत ही कम विधेयकों को चर्चा के लिये संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, पीआरएस लेजिस्लेटिव के अनुसार, वर्ष 2014-2019 में समितियों को केवल 25% विधेयक भेजे गए थे, जबकि 14वीं (2004-2009) 60% और 15वीं लोकसभा (2009-14) में 71% विधेयक भेजे गए थे।
➱ विधेयकों का चुनावः भारतीय संसद में विधेयकों को समितियों के पास भेजना अनिवार्य नहीं है तथा इसके लिये विधेयकों के चयन को सदन अध्यक्ष के विवेक पर छोड़ दिया गया है। स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों में सभी विधेयक समितियों को भेजे जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया में
➱ ऐसे विधेयकों का चयन एक समिति द्वारा किया जाता है जिसमें विपक्ष के सदस्य शामिल होते हैं, ऐसे में इस मामले में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।
➱ अधिकांश संसदीय समितियों पर कार्य का दबाव अधिक होने के कारण वे वर्ष भर में कुछ सीमित विषयों पर ही कार्य कर पाती हैं, उदाहरण के लिये प्राक्कलन समिति हर वर्ष कुछ ही मंत्रालयों एवं विभागों की समीक्षा कर पाती है।
➱ बैठकों में कमी एवं अनुपस्थितिः 17वीं लोकसभा के दूसरे सत्र ( नवंबर-दिसंबर 2019 ) में प्रत्येक विभाग से संबंधित स्थायी समिति की औसत उपस्थिति 54% और तीसरे सत्र (जनवरी-मार्च) में 48% थी। नवंबर से मार्च 2020 के बीच हुई समिति की बैठकों में 78 फीसदी से ज्यादा सदस्य अनुपस्थित थे।
आगे की राह
➱ संसदीय समितियों के अस्तित्व में आने के बाद से विपक्षी दलों के नेताओं को कई महत्त्वपूर्ण समितियों में अध्यक्षता देने की परंपरा कानून निर्माण प्रक्रिया में सभी पक्षों के प्रतिनिधित्त्व को सुनिचित करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है, साथ ही यह कार्यपालिका पर विधायिका के नियंत्रण को मज़बूत करता है।
➱ संसदीय समितियों की बैठकों को बढ़ाने एवं इन बैठकों में सदस्यों की उपस्थिति को सुनिश्चित करने पर विशेष जोर दिया जाना चाहिये।
➱ विशेषज्ञों के अनुसार, सरकार को सभी विधेयकों को संसद में प्रस्तुत करने से पूर्व इसे स्थायी समिति को भेजे जाने पर विचार करना चाहिये, जबकि जो विधेयक कम महत्त्व के हों उनपर सर्वसम्मति से सदन में ही चर्चा कर ली जाए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
1. संयुक्त संसदीय समिति में कितने सदस्य होते हैं?
उत्तर: समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा से व 10 राज्यसभा से) होते हैं।
2. भारत में कुल सांसदों की संख्या कितनी है?
उत्तर: वर्तमान मे लोकसभा के सदस्यों की संख्या 543 है तथा राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 245 है।